Mirza Ghalib | Some Untold Unseen Shayari Of Mirza Ghalib
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जिस व्यक्ति ने दुनिया को शब्दों में बुनना सिखाया, मिर्ज़ा असदुल्लाह बेग खान, जिन्हें दुनिया में उनकी कलम के रूप में जाना जाता है, ग़ालिब का जन्म 1797 में आगरा में हुआ था, वह बहादुर शाह के दरबार में एक प्रसिद्ध कवि थे। दूसरा।
7 बच्चों को खोने के बाद, उन्होंने उर्दू, तुर्की, फारसी में अपना जीवन कविता को समर्पित कर दिया। ग़ालिब साहब निस्संदेह उन बेहतरीन उर्दू कवियों में से एक हैं जिन्हें भारत ने कभी देखा है। वह आदमी जिसने शब्दों को जीवन दिया, प्रत्येक भाव को शब्द और प्रत्येक शब्द को भावना।
उन्होंने 11 साल की उम्र से कविता लिखना शुरू कर दिया था। उनका ज्यादातर काम उदासी और निराशा पर है, लेकिन उन्होंने कुछ बहुत अच्छी प्रेम कविता भी लिखी।
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" पेश -ऐ- खिदमद है "
" मिर्ज़ा ग़ालिब की कुछ अनकही अनसुनी शायरी "
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मरता हूँ इस आवाज़ पे हरचन्द सर उड़ जाय
जल्लाद को लेकिन वो कहे जायें कि "हाँ और"
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लोगों को है खुर्शीद-ए-जहाँ ताब का धोका
हर रोज दिखाता हूँ मैं इक दाग-ए-निहाँ और
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लेता, न अगर दिल तुम्हें देता,
कोई दम चैंन करता,
जो न मरता कोई दिन,
आह-ओ-फुगा और
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पाते नहीं जब राह.
तो चड़ जाते हैं नाले रुकती है
मेरी तब आ तो होती है रवाँ और
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हैं और भी दुनिया में सुखनवर बोहोत
अच्छे कहते हैं कि “ग़ालिब" का है
अन्दाज-ए-बयाँ और
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या शब को देखते थे कि हर गोशा-ए-बिसात
दामान-ए-बागबान-ओ-कफ़-ए-गुल-फ़र्श है।
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लुत्फ़-ए-ख़िराम-ए-साक़ी-ओ-ज़ौक़-ए-सदा-ए-चंग
ये जन्नत-ए-निगाह वो फिरदौस-ए-गोश है
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या सुभ दम जो देखिये आकर तो बज्म में
नै वो सुरूर-ओ-सोज न जोश-ओ-खरोश है
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दाग़-ए-फ़िराक़-ए-सोहबत-ए-शब की जली हुई
इक शम्मा रह गई है सो वो भी खामोश है
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आते हैं गैब से ये मज़ामीं खयाल में “ग़ालिब",
सरीर-ए-खामा नवा-ए-सरोश है
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है बस कि हर इक उनके इशारे में निशाँ और
करते हैं मुहोब्बत तो गुजरता है गुमाँ और
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यारब ! वो न समझे हैं न समझेंगे मेरी बात
दे और दिल उनको, जो न दे मुझको जुबाँ और
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आब्रू से है क्या उस निगाह-ए-नाज को पैवन्द
है तीर मुक़र्रर मगर उसकी है कमाँ और
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तुम शहर में हो तो हमें क्या गम ? जब उठेंगे
ले आयेंगे बाजार से जाकर दिल-ओ-जाँ और
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हरचन्द सुबक-दस्त हुए बुत-शिकनी में हम हैं
तो अभी राह में है संग-ए-गिराँ और
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है खून-ए-जिगर जोश में दिल खोल के रोता
होते कई जो दीदा-ए-तूंनाबा-फ़िशाँ और
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कहा तुमने कि “क्यों हो गैर के मिलने में रुस्वाई?"
बजा कहते हो, सच कहते हो,
फ़िर कहियो कि "हाँ क्यों हो?"
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निकाला चाहता है काम क्या ता'अनों से
तू 'ग़ालिब" तेरे बे-मेहर कहने से वो तुझ
पर मेहरबाँ क्यों हो?
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जुल्मत-कदे में मेरे शब-ए-ग़म का जोश है
इक शम्मा है दलील-ए-सहर, सो खमोश है
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नै मुज्दा-ए-विसाल न नज़ारा-ए-जमाना मुद्दत
हुई कि आश्ती-ए-चश्म-ओ-गोश है
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मय ने किया है,
हुस्न-ए-खुद-आरा को बे-हिजाब 'ए शौक़,
याँ इजाजत-ए-तस्लीम-ए-होश है
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गौहर को इक्द-ए-गर्दन-ए-खुबाँ में देखना
क्या औज पर सितारा-ए-गौहर-फ़रोश है
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दीदार, वादा, हौसला, साकी, निगाह-ए-मस्त
बज्म-ए-ख़याल मैकदा-ए-बे-खरोश है
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'ए ताजा वारिदान-ए-बिसात-ए-हवा-ए-दिल
जिन्हार गर तुम्हें हवस-ए-ना-ओ-नोश है
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देखो मुझे जो दीदा-ए-इब्रत-निगाह हो मेरी
सुनो जो गोश-ए-नसीहत-नियोश है
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साक़ी बा-जल्वा दुश्मन-ए-इमान-ओ-आगही
मुत्रिब बा-नरमा रहजन-ए-तम्कीन-ओ-होश है
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मैंने मजनू पे लड़कपन में असद संग
उठाया था कि सर याद आया
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किसी को दे के दिल कोई
नवा-संज-ए-फुगाँ क्यों हो ?
न हो जब दिल ही सीने में तो
फ़िर मुँह में जुबाँ क्यों हो ?
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वो अपनी खू''न छोड़ेंगे,
हम अपनी वज''आ क्यों बदलें ?
सुबक-सर बनके क्या पूछे कि
हम से सर-गिराँ क्यों हो ?
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किया गम-ख्वार ने रुस्वा.
लगे आग इस मोहब्बत को न लाये ताब
जो ग़म की. वो मेरा राजदाँ क्यों हो ?
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वफ़ा कैसी ? कहाँ का इश्क़ ?
जब सर फोड़ना ठेहरा तो फ़िर ऐ
संग-दिल तेरा ही संग-ए-आस्ताँ क्यों हो ?
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क़फ़स में मुझ से रूदाद-ए-चमन
कहते न डर हमदम गिरी है जिस पे
कल बिजली वो मेरा आशियाँ क्यों हो?
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ये कह सकते हो हम दिल में नहीं हैं
पर ये बतलाओ कि जब दिल में तुम्ही-तुम
हो तो आँखो से निहाँ क्यों हो ?
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ग़लत है जज्बा-ए-दिल का शिक्वा.
देखो जुर्म किसका है न खींचो गर तुम
अपने को. कशाकश दर्मियाँ क्यों हो ?
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ये फ़ितना आदमी की खाना-वीरानी को क्या कम है ?
हुए तुम दोस्त जिसके. दुश्मन उसका आस्माँ क्यों हो ?
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यही है आजमाना तो सताना किस को कहते हैं ?
अदू के हो लिये जब तुम तो मेरा इम्तिहाँ क्यों हो ?
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की मेरे क़त्ल के बाद उसने जफ़ा से तौबा
हाय उस जूद-पशेमाँ का पशेमाँ होना
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हैफ़ उस चार गिरह कपड़े की किस्मत 'ग़ालिब"
जिस की किस्मत में हो आशिक़ का गिरेबाँ होना
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फ़िर मुझे दीदा-ए-तर याद आया दिल
जिगर तश्ना-ए-फ़रियाद आया
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दम लिया था न क़यामत ने हनोज़
फ़िर तेरा वक़्त-ए-सफ़र याद आया
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सादगी हाय तमन्ना. यानी फ़िर
बो नै-रंग-ए-नजर याद आया
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उज्र-ए-वामाँदगी ए हसरत-ए-दिल
नाला करता था जिगर याद आया
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जिन्दगी यों भी गुजर ही जाती क्यों
तेरा राहगुज़र याद आया ?
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क्या है रिज़्वाँ से लड़ाई होगी
घर तेरा खुल्द में गर याद आया
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आह वो जुर्रत-ए-फ़रियाद कहाँ दिल
से तंग आके जिगर याद आया
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फ़िर तेरे कूचे को जाता है खयाल
दिल-ए-गुमगश्ता मगर याद आया
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इक नौ-बहार-ए-नाज को ताके है फ़िर निगाह
चहरा फुरोग-ए-मय से गुलिस्ताँ किये हुए
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फ़िर जी में है कि दर पे किसी के पड़े रहें
सर जर-ए-बार-ए-मिन्नत-ए-दरबाँ किये
हुए
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जी ढूँढता है फ़िर वोही फुर्सत के रात
दिन बैठे रहें तसव्वुर-ए-जानाँ किये हुए
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"ग़ालिब" हमें न छेड़ कि फ़िर
जोश-ऐ-अश्क से बैठे हैं हम
तहय्या -ए-तूफ़ाँ किये हुए
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बस कि दुश्वार है हर काम का आसाँ होना
आदमी को भी मुयस्सर नहीं इन्साँ होना
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गिरिया चाहे है खराबी मेरे काशाने की
दर-ओ-दीवार से टपके है बयाबाँ होना
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वा-ए-दीवानगी-ए-शौक़. के हर दम मुझको
आप जाना उधर और आप ही हैराँ होना
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जल्वा अज-बस की तक़ाजा-ए-निगाह करता है
जौहर-ए-आइना भी चाहे है मिशगाँ होना
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इशरत-ए-क़त्ल-गह-ए-अहल-ए-तमन्ना मत पूछ
ईद-ए-नजारा है शमशीर का उरियाँ होना
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ले गये खाक में हम दाग-ए-तमन्ना-ए-निशात
तू हो और आप बा-सद-रंग-ए-गुलिस्ताँ होना
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इश्रत-ए-पारा-ए-दिल, जख्म-ए-तमन्ना-खाना
लज्जत-ए-रीश-ए-जिगर गर्क-ए-नमकदाँ होना
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फ़िर वज'आ-ए-एहतियात से रुकने लगा है
दम बरसों हुए हैं चाक गरेबाँ किये हुए
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फ़िर गर्म-नाला हाय शरर-बार है
नफ़स मुद्दत हुई है
सैर-ए-चिरागाँ किये हुए
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फ़िर पुर्सिश-ए-जराहत-ए-दिल को चला है
इश्क़ सामान-ए-सद-हजार नमकदाँ किये हुए
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फ़िर भर रहा है खामा-ए-मिशगाँ बा-खून-ए-दिल
साज-ए-चमन-तराजी-ए-दामाँ किये हुए
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बा-हम-दिगर हुए हैं दिल-ओ-दीदा फ़िर रक़ीब
नजारा-ओ-ख़याल का सामाँ किये हुए
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दिल फ़िर तवाफ़-ए-कू-ए-मलामत को जाए है
पिन्दार का समन-कदा वीरँ किये हुए
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फ़िर शौक़ कर रहा है खरीदार की तलब
अर्ज-ए-मत आ-ए-'अक्ल-ओ-दिल-ओ-जाँ
किये हुए
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दौड़े है फ़िर हरेक गुल-ओ-लाला पर खयाल
सद-गुल-सिताँ निगाह का सामाँ किये हुए
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फ़िर चाहता हूँ नामा-ए-दिलदार खोलना जाँ
नज़्र-ए-दिल-फ़रेबी-ए-उनवाँ किये हुए
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माँगे है फ़िर किसी को लब-ए-बाम पर हवस
जुल्फ़-ए-सियाह रुख पे परेशाँ किये हुए
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दैर नहीं, हरम नहीं, दर नहीं,
आस्ताँ नहीं बैठे हैं रेहगुजर पे हम,
ग़ैर हमें उठाये क्यों ?
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जब वो जमाल-ए-दिल-फ़रोज़,
सूरत-ए-मेहर-ए-नीम-रोज आप ही
हो नज़ारा-सोज़,
पर्दे में मुँह छुपाये क्यों ?
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दश्ना-ए-गम्जा जाँ-सिताँ,
नावक-ए-नाज़ बे-पनाह
तेरा ही अक्स-ए-रुख सही.
सामने तेरे आये क्यों?
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वाँ वो गुरूर-ए-इजाज-ओ-नाज याँ
ये हिजाब-ए-पास-ए-बज आ
राह में हम मिले कहाँ,
बज्म में वो बुलाये क्यों ?
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हाँ वो नहीं खुदा-परस्त,
जाओ वो बे-वफ़ा सही जिसको हो
दीन-ओ-दिल अजीज,
उसकी गली में जाये क्यों ?
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गालिब -ए-खस्ता के बगैर कौन से काम बन्द हैं ?
रोइये जार-जार क्या. कीजिये हाय-हाय क्यों ?
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मुद्दत हुई है यार को मेहमाँ किये हुए
जोश-ए-कदाह से बज्म चरागाँ किये हुए
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करता हूँ जम आ फ़िर जिगर-ए-लख्त-लख्त
को अर्सा हुआ है दावत-ए-मिशगाँ किये हुए
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दिल हवा-ए-ख़िराम-ए-नाज़ से फ़िर
महशरिस्तान-ए-बेक़रारी है
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चश्म-ए-दल्लाल-ए-जिन्स-ए-रुस्वाई
दिल ख़रीदार-ए-जौक़-ए-ख्वारी है
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किब्ला-ए-मकसद-ए-निगाह- ए-नियाज
फ़िर भी पर्दा-ए-अमारी है।
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फ़िर जिगर खोदने लगा नाखून
आमद-ए-फ़स्ल-ए-लाला-कारी है
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फिर कुछ इस दिल को बेक़रारी है
सीना ज़ोया-ए-जख्म-ए-कारी है
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हम-पेशा-ओ-हम-मशर्व-ओ-हम-राज है मेरा
"गालिब" को बुरा क्यों कहो अच्छा मेरे आगे !
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खुश होते हैं पर वस्ल में यों मर नहीं जाते
आयी शब-ए-हिजराँ कि तमन्ना मेरे आगे
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रुस्वा -ए-दहर गो हुए आवारगी से तुम
बारे तबीयतों के तो चालाक हो गये
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सर्फ़-ए-बहा-ए-मय हुए आलात-ए-मयकशी
थे ये ही दो हिसाब, सो यों पाक हो गये
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रोने से और इश्क़ में बे-बाक हो गये
धोये गये हम ऐसे कि बस पाक हो गये
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फ़िक्र-ए-दुनियाँ में सर खपाता हूँ
मैं कहाँ और ये वबाल कहाँ ?
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हमसे छूटा क़मार-खाना-ए-इश्क वाँ
जो जाव, गिरह में माल कहाँ ?
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ऐसा आसाँ नहीं लहू रोना दिल में
ताक़त जिगर में हाल कहाँ ?
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थी वो इक शख़्स के तसव्वुर से
अब वो रानाइ-ए-खयाल कहाँ ?
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दिल तो दिल वो दिमाग भी न रहा
शोर-ए-सौदा-ए-खत्त-ओ-खाल कहाँ ?
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फुर्सत-ए-कारोबार-ए-शौक़ किसे ?
ज़ौक़-ए-नज़ारा-ए-जमाल कहाँ ?
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वो फ़िराक़ और वो विसाल कहाँ ?
वो शब-ओ-रोज-ओ-माह-ओ-साल कहाँ ?
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इस ढंग से उठायी कल उसने "असद" की लाश
दुश्मन भी जिसको देखके ग़मनाक हो गये
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करने गये थे उससे तगाफुल का हम गिला
कि एक ही निगाह कि बस खाक हो गये
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कहता है कौन नाला-ए-बुलबुल को बे-असर
पर्दे में गुल के लाख जिगर चाक हो गये
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हुए मर के हम जो रुस्वा,
हुए क्यों न गर्क-ए-दरिया
न कभी जनाजा उठता.
न कहीं मजार होता
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कहूँ किस से मैं के क्या है.
शब-ए-गम बुरी बला है
मुझे क्या बुरा था मरना ?
अगर एक बार होता
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रग-ए-संग से टपकता वो
लहू कि फ़िर न थमता
जिसे ग़म समझ रहे हो,
ये अगर शरार होता
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ये कहाँ कि दोस्ती है के
बने हैं दोस्त नासेह
कोई चारसाज़ होता,
कोई ग़मगुसार होता
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कोई मेरे दिल से पूछे
तेरे तीर-ए-नीमकश को
ये खलिश कहाँ से होती
जो जिगर के पार होता
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तेरी नाजुकी से जाना कि बन्धा था एहेद-बूदा
कभी तू न तोड़ सकता अगर ऊस्तुवार होता
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तेरे वादे पर जिये हम तो ये जान झूट जाना
के खुशी से मर न जाते अगर ऐतबार होता
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ये न थी हमारी किस्मत के विसाल-ए-यार होता
अगर और जीते रहते यही इन्तेजार होता
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मुज्महिल हो गये कुव'आ "ग़ालिब"
वो अनासिर में एत्दाल कहाँ ?
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हैराँ हूँ दिल को रोऊँ कि पीटूँ जिगर को मैं ?
मक़्दूर हूँ तो साथ रखूं नौहागर को मैं
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"ग़ालिब" मेरे कलाम में क्योंकर मजा न हो ?
पीता हूँ धोके खुसरव-ए-शीरीं-सुख़न के पाँव
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है जोश-ए-गुल बहार में याँ तक कि हर तरफ़
उडते हुए उलझते हैं मुर्ग-ए-चमन के पाँव
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अल्लाह रे जौक़-ए-दश्त-ए-नव्दी कि बाद-ए-मर्ग
हिलते हैं खुद-बा-खुद मेरे अन्दर क़फ़न के पाँव
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मरहम कि जुस्तजू में घिरा हूँ जो दूर-दूर तन
से सिवा फ़िगार है इस सस्ता-तन के पाँव
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भागे थे हम बहुत सी उसकी सजा है
ये होकर असीर दाबते हैं राहों के पाँव
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धोता हूँ जब मैं पीने को उस सीम-तन के पाँव
रखता है जिद से खींच के बाहर लगन के पाँव
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ये मसाइल-ए-तसव्वुफ़, ये तेरा बयाँ "गालिब" !
तुझे हम वली समझते, जो न बादा-ख़्वार होता
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जम'आ करते हो क्यों रक़ीबों का ?
इक तमाशा हुआ गिला न हुआ
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दर्द मिन्नत-कश-ए-दवा न हुआ
मैं न अच्छा हुआ, बुरा न हुआ
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"गालिब" खुदा करे कि सवार-ए-समन्द-ए-नाज
देखू अली-बहादुर-ए-आली-गुहर को मैं
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अपने पे कर रहा हूँ कियास
'अहल-ए-दहर का समझा हूँ
दिल-पजीर मत'आ-ए-हुनर को मैं
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फ़िर बे-खुदी में भूल गया राह-ए-कू-ए-यार
जाता बर्ना एक दिन अपनी खबर को मैं
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ख्वाहिश को 'अहम्कों ने परस्तिश दिया करार
क्या पूजता हूँ उस बुत-ए-बेदादगर को मैं ?
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चलता हूँ थोड़ी दूर हर इक तेज रौ के साथ
पेहचानता नहीं हूँ अभी राहबर को मैं
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जाना पड़ा रक़ीब के दर पर हजार बार
ए काश न तेरी रहगुजर को मैं
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छोड़ा न रश्क ने कि तेरे घर का नाम लूँ ?
हर एक से पूछता हूँ कि जाऊँ किधर को मैं ?
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है कुछ ऐसी ही बात जो चुप हूँ
वर्ना क्या बात कर नहीं आती?
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जानता हूँ सवाब-ए-ताअत-ओ-ज़हद
पर तबीयत इधर नहीं आती
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आगे आती थी हाल-ए-दिल पे हंसी
अब किसी बात पर नहीं आती
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मौत का एक दिन मुअय्यन है
नींद क्यों रात भर नहीं आती ?
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कोई उम्मीद बर नहीं आती
कोई सूरत नज़र नहीं आती
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कुछ तो पढ़िये कि लोग कहते हैं
'आज "गालिब" गजलसरा न हुआ
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रहजनी है कि दिल-सितानी है ?
लेके दिल, दिल-सिताँ रवा न हुआ
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जख्म गर दब गया, लहू न थमा
काम गर रुक गया. रवाँ न हुआ
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जान दी, दी हुई उसी कि थी
हुक़ तो ये है के हक़ अदा न हुआ
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क्या वो नामरूद की खुदाई थी
बन्दगी में तेरा भला न हुआ
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है खबर गर्म उनके आने की
आज ही घर में बोरिया न हुआ !
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कितने शीरीं हैं तेरे लब ! कि रक़ीब
गालियाँ खाके बेमजा न हुआ
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हम कहाँ किस्मत आजमाने जायें ?
तू ही जब खन्जर आजमा न हुआ
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इश्क पर जोर नहीं, है ये वो आतिश "ग़ालिब"
कि लगाये न लगे और बुझाए न बने
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बोझ वो सर पे गिरा है कि उठाये न उठे
काम वो आन पड़ा है, कि बनाये न बने
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मौत की राह न देखूँ कि बिन आये न रहे
तुमको चाहूँ कि न आओ, तो बुलाये न बने
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कह सके कौन कि ये जल्वा-गरी किसकी है
पर्दा छोड़ा है वो उसने कि उठाये न बने
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इस नजाकत का बुरा हो, वो भले हैं तो क्या
हाथ आये तो उन्हें हाथ लगाये न बने
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गैर फ़िरता है लिये यूँ तेरे खत को कि
अगर कोई पूछे कि ये क्या है ?
तो छिपाये न बने
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खेल समझा है कहीं छोड़ न दे. भूल न जाय
काश ! यूँ भी हो कि बिन मेरे सताये न बने
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मैं बुलाता तो हूँ उसको मगर ए जज्बा-ए-दिल
उसपे बन जाये कुछ ऐसी कि बिन आये न बने
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नुक्ताचीं है ग़म-ए-दिल उसको सुनाये न बने
क्या बने बात जहाँ बात बनाये न बने
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कब'आ किस मुँह से जाओगे "गालिब"
शर्म तुमको मगर नहीं आती
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मरते हैं आरजू में मरने की
मौत आती है पर नहीं आती
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हम वहाँ हैं जहाँ से हमको भी
कुछ हमारी खबर नहीं आती
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दाग-ए-दिल गर नजर नहीं आता
बू भी ऐ चारागर ! नहीं आती
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क्यों न चीखूँ कि याद करते हैं
मेरी आवाज़ गर नहीं आती
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दिल ही तो है न संग-ओ-खिश्त
दर्द से भर न आये क्यों ?
रोयेंगे हम हजार बार,
कोई हमें सताये क्यों ?
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यार से छेड़ा चली जाए, “असद"
गर नही वस्ल तो हसरत ही सही
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हम भी तस्लीम की खूँ डालेंगे
बे-नियाजी तेरी आदत ही सही
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कुछ तो दे 'ए फ़लक-ए-ना-इन्साफ़
आह-ओ-फ़रियाद की रुखसत ही सही
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हम कोई तर्क-ए-वफ़ा करते हैं
न सही इश्क, मुसीबत ही सही
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उम्र हरचन्द के है बर्क-ए-खिराम
दिल के खूँ करने की फुर्सत ही सही
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अपनी हस्ती ही से हो, जो कुछ हो !
आगही गर नहीं ग़फ़लत ही सही
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हम भी दुश्मन तो नहीं हैं अपने
गैर को तुझ से मोहब्बत ही सही
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मेरे होने में है क्या रुस्वाई ?
'ए वो मजलिस नहीं खलवत ही सही
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इश्क़ मुझको नहीं, वेहशत ही सही
मेरी वेहशत, तेरी शोहरत ही सही
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जेहर मिलता ही नहीं मुझको सितमगर,
वर्ना क्या क़सम है तेरे मिलने की,
के खा भी न सकूँ
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बाजीचा-ए-अत्फ़ाल है
दुनिया मेरे आगे होता है
शब-ओ-रोज तमाशा मेरे आगे
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इक खेल है औरंग-ए-सुलेमाँ मेरे नजदीक
इक बात है एजाज-ए-मसीहा मेरे आगे
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जुज नाम नहीं सूरत-ए-आलम
मुझे मंजूर जुज वहम नहीं
हस्ती-ए-अशिया मेरे आगे
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होता है निहाँ गर्द में सेहरा मेरे होते
घिसता है जबीं खाक पे दरिया मेरे आगे
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मत पूछ के क्या हाल है मेरा तेरे पीछे ?
तू देख के क्या रंग है तेरा मेरे आगे
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सच कहते हो,
ख़ुदबीन-ओ-ख़ुद-आरा न क्यों हूँ?
बैठा है बुत-ए-आइना-सीमा मेरे आगे
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फ़िर देखिये अन्दाज-ए-गुल-अफ़्शानि-ए-गुफ़्तार
रख दे कोई पैमाना-ओ-सहबा मेरे आगे
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नफ़रत का गुमाँ गुज़रे है,
मैं रश्क से गुजरा क्यों कर कहूँ,
लो नाम न उसका मेरे आगे
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इमाँ मुझे रोके है जो खींचे है मुझे कुफ्र
काबा मेरे पीछे है कलीसा मेरे आगे
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आशिक़ हूँ, पे माशूक-फ़रेबी है मेरा काम
मजनूँ को बुरा कहती है लैला मेरे आगे
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काता-ए-अमार है अक्सर नुजूम
वो बला-ए-आस्मानी और है
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हो चुकीं ग़ालिब" बलायें सब तमाम
एक मर्ग-ए-नागहानी और है
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आह को चाहिये इक उम्र असर होने तक
कौन जीता है तेरी ज़ुल्फ़ के सर होने तक ?
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दाम हर मौज में है हल्क़ा-ए-सद-काम-ए-नहंग
देखें क्या गुजरे है क़त्रे पे गुहर होने तक
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आशिक़ी सब्र तलब और तमन्ना बेताब दिल
का क्या रंग करूं खून-ए-जिगर होने तक ?
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हम ने माना के तगाफुल न करोगे. लेकिन
खाक हो जायेंगे हम तुमको खबर होने तक
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पर्तव-ए-खुर से है शबनम को फ़न ''आ की तालीम
मैं भी हूँ इक इनायत की नजर होने तक
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यक-नजर बेश नहीं फुर्सत-ए-हस्ती गाफ़िल
गर्मी-ए-बज्म है इक रक्स-ए-शरर होने तक
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गम-ए-हस्ती का असद किस से हो जुज मर्ग इलाज
शम्मा हर रंग में जलती है सहर होने तक
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मेहेरबाँ होके बुला लो मुझे चाहो जिस वक़्त
मैं गया वक़्त नहीं हूँ के फ़िर आ भी न सकूँ
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जौफ़ में ताना-ए-अग़यार का शिकवा क्या है ?
बात कुछ सर तो नहीं है के उठा भी न सकूँ
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मोहब्बत में नहीं है फ़र्क जीने और मरने का
उसी को देख कर जीते हैं
जिस काफ़िर पे दम निकले
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जरा कर जोर सीने पर कि तीर-ए-पुरसितम निकले
जो वो निकले तो दिल निकले,
जो दिल निकले तो दम निकले
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खुदा के वास्ते पर्दा न काबे से उठा जालिम
कहीं एसा न हो याँ भी वोही काफ़िर सनम निकले
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कहाँ मैखाने का दरवाजा “गालिब" और
कहाँ वाइज पर इतना जानते हैं
कल वो जाता था के हम निकले
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ये जो हम हिज्र में दीवार-ओ-दर को देखते हैं
कभी सबा को कभी नामाबर को देखते हैं
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वो आये घर में हमारे खुदा की कुदरत है
कभी हम उनको, कभी अपने घर को देखते हैं
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नजर लगे न कहीं उसके दस्त-ओ-बाज़ू को
ये लोग क्यों मेरे जख्म-ए-जिगर को देखतें हैं ?
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कोई दिन गर जिन्दगानी और है
अपने जी में हमने ठानी और है
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आतिश-ए-दोजख में ये गर्मी कहाँ
सोज-ए-ग़म हा ए निहानी और है
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बारहा देखी हैं उनकी रन्जिशें पर
कुछ अब के सर-गिरानी और है
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देके ख़त मुँह देखता है नामाबर
कुछ तो पैगाम-ए-ज़बानी और है
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... Thank You ...
1 Comments
It's ameging...
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