Phir Wahi Khata, Phir Wahi Saza | Pardeep Kumar | The Social House Poetry
इस कविता के बारे में :
इस काव्य 'फिर वही ख़ता फिर वही सज़ा' को Social House के लेबल के तहत प्रदीप कुमार ने लिखा और प्रस्तुत किया है।
शायरी...
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फूल बरसेंगे किसी अब्र से पानी की तरह मैं तुम्हें शेयर सुनाएगा कहानी की तरह
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अपने दर्द का ना तुमको मैं पता जरा नहीं दूँगा तुम पूछ लोगे हाल और मैं मुस्करा दूँगा
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अपनी बर्बाद हालत को सम्भाला जाए मेरे कमरे मे भी तो उजाला जाये दिल से उसे निकालना अगर है नामुमकिन फिर तो दिल को सीने से निकाला जाये मैं हार जाऊँगा है तकदीर का ये खेल है गुजारिश की सिक्का उछाला ना जाये
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कहीं भूख से रुस्वाई कहीं रोटी से गिला दोनों हुए हाजिर तो वक्त ना मिला और हंस रही थी झोपड़ी मुफ़लिसी मे भी तन्हा खड़ा रोता रहा वो आलीशा किला
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कत्ल कर दिया था जिसने मुझे कभी वो शख्स मेरी तलाश मे आज फिर से है चला
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कुछ यू खेलता है वो मेरे ज़ज्बात के साथ हर बात काट देता है मेरी अपनी बात के साथ इश्क़ भी हो और दिल भी ना टूटे तुम हादसा भी चाहते हो ऐहतियात के साथ और मैं साथ हू तेरे और जुदा भी मानो दिन निकल आया हो रात के साथ सुनो इस बात पर खफा मत होना कुछ दोस्त है पीने वाले बारात के साथ
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आज फिर जंगल में कोई अनोखी शादी है आज फिर धूप निकली है बरसात के साथ
पोएट्री...
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मैं अपने मौत के मंजर को भी जीना चाहता हूं
कफन अपना अपने हाथों से ही सीना चाहता हू
बड़ी फुर्सत मे काटी है जिंदगी
की कुछ काम करू
मैं मरते वक्त माथे पर पसीना चाहता हूं
बड़ी बेगेरत हैं बेतरतीब चली आती है
मैं अब तेरी यादों का एक करीना चाहता हू
मुझे तो हैं दिलों ओ जान से हसने की
ख्वाहिश कौन कहता है मैं हसीना चाहता हू
उसकी आखों की शराब तो पीं लेंगे और भी
मैं तो मुक़ददस उन आखों का पीना चाहता हूँ
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इस कदर भी खुद को तुम बेकार मत करना
इक पल में उम्र भर का करार मत करना
हैं गिला इतना की उसकी सुनता नहीं हू
वो कह गयी थी मुझसे की इंतजार मत करना
सच जानना हो अगर तो आखों से पड़ लेना
लब तो कुछ भी बोलेंगे तुम ऐतबार मत करना
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फिर वही ख़ता फिर वही सज़ा
फिर वही इश्क़ फिर वही मिला
फिर वही तख्त फिर वही किला
फिर वही कत्ल फिर वही छुरा
फिर वही कसक फिर वही गिला
फिर वही सही फिर वही बुरा
फिर वही ख़लिश फिर वही खला
सब हुआ फ़ना कुछ नहीं बचा
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यही दोस्ती ही कल तुम्हें चाहत सी लगेगी
कम करो बातें नहीं तो आदत सी लगेगी
इन्तेज़ार मे खड़े हो तो घड़ी मत देखना
वरना ये घड़ी तुम्हें मुद्दत सी लगेगी
देखना उन्हें तो फक्त उनको ही देखना
ऐसा करोगे अगर तो उनको मोहब्बत सी लगेगी
अगर देनी हो निशानी तो बिन बताये देना
जाहिर जो कर दिया तो अमानत सी लगेगी
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कभी कभी मर जाने को जी चाहता है
फिर याद आती है माँ घर जाने को जी चाहता है
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उम्र सारी काट दी हमने आखों मे अश्क लिए
मौत जब आयी तो मुस्कराने का जी चाहता है
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खा गए सारी किताबे ये कागजी कीड़े
हैरान हू ये तेरी चिट्ठी क्यू नहीं खाते
वतनपरस्ती इनके खून मे भी होगी कैसे
यह वही लोग हैं जो बचपन मे मिट्टी नहीं खाते
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सुनिए इस कविता का ऑडियो वर्शन
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... Thank You ...
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