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[Part-2] Mein Pandit Ji Ka Beta Tha Wo Kazi Sahab Ki Beti Thi | Amritesh Jha | Poetry

Mein Pandit Ji Ka Beta Tha Wo Kazi Sahab Ki Beti Thi | Amritesh Jha | PoetryMein Pandit Ji Ka Beta Tha Wo Kazi Sahab Ki Beti Thi | Amritesh Jha | Poetry
Mein Pandit Ji Ka Beta Tha Wo Kazi Sahab Ki Beti Thi | Amritesh Jha | Poetry

इस कविता के बारे में :

इस प्रेम काव्य ‘में पंडित जी का बेटा था वो काज़ी साहब की बेटी थी’ को G-talks के लेबल के तहत अमृतेश झा ने लिखा और प्रस्तुत किया है।


शायरी…

में उनसे बाते तो नहीं करता पर उनकी बाते लजाब करता हु पेशे से शायर हु यारो अल्फाजो से दिल का इलाज़ करता हु

*****

अब वो मुस्कुराते नहीं है कोई गम है क्या, उनकी नज़रे झुकी सी रहती है आंखे नम है क्या, मेरी नज़र पर सवाल उठाने वालो में गूँज को चाँद कहता हु वो चाँद से कम है क्या, ये जो मेरे चारो तरफ उजाला ही उजाला है ये वो चाँद तो नहीं हो सकता गूँज ये तुम हो क्या |

पोएट्री…


*****


जो गूँज रही थी मेरे कानो में वो उसकी 

शादी की सहनाई थी 

में कालिया बिछा रहा था रहो में आज 

मेरी जान की विदाई थी 

में वही मंदिर में बैठा था पर आज 

वो डोली में बैठी थी 

में पंडित जी का बेटा था वो काज़ी 

साहब की बेटी थी 


***

हर दरगाह में धागा बंधा मैंने हर 

मंदिर में माथा टेका था 

में ईश्वर अल्लाह सब भूल गया 

जब उसको जाते देखा था 

की सुख चुकी थी सब कलिया 

हर गली सुनसान थी 

कल तक थी जो मोहब्बत मेरी 

आज किसी की बेगम जान थी 

इश्क़ से वाक़िफ़ थी वो लेकिन 

मजहब से अनजान थी 

बस गलती इतनी सी थी हमारी 

की में हिन्दू वो मुसलमान थी 


***

बिलखता रहा में रात भर जब 

सारा ज़माना सोया था 

अकेले अश्क़ नहीं थे मेरी आँखों में 

वो क़ाज़ी भी उतना ही रोया था 

हर दर्द संभाल कर रखा मैंने क्या 

बिगाड़ा था ज़माने का 

किसी ने गम मनाया जुदाई का तो 

किसी ने जश्न मनाया उसके आने का 

में उससे मोहब्बत करता था वो 

मुझसे मोहब्बत करती थी 

में पंडित जी का बेटा था वो काज़ी 

साहब की बेटी थी 


***

रूह पड़ी थी पास में मेरे और 

जिस्म उसके पास मिली 

इश्क़ मुकम्मल हो गया उसका जब अगली 

सुबह उसके घर में ही उसकी लाश मिली 

सुबह एक ज़ख़्म और मिला रात 

का ज़ख़्म अभी भी ताज़ा था 

रात में डोली उठी थी जिसकी 

सुबह में उसका ज़नाज़ा था 

सब मज़हबी कीड़े आये वहा पर 

अपने-अपने मज़हब की बोली लेकर 

में भी गया जनाज़े में उसके, 

उसके नाम की डोली लेकर


***

तिनका-तिनका बिखरा था में मेरी 

आँखों के आगे पूरी दास्तान थी 

जिस्म ठंडा पड़ा था उसका लेकिन 

चेहरे पे मुस्कान थी 

इश्क़ से वाक़िफ़ थी वो लेकिन 

मजहब से अनजान थी 

बस गलती इतनी सी थी हमारी की 

में हिन्दू वो मुसलमान थी 

कभी में उसमे ससे लेता था कभी 

वो मुझमे ससे लेती थी 

में पंडित जी का बेटा था वो काज़ी 

साहब की बेटी थी 


***

मुझे उसके जाने का गम नहीं 

आखिर तक कौन साथ निभाता है 

लेकिन मज़हब-मज़हब करने वालो 

मज़हब भी पहले प्यार सिखाता है 

इश्क़ मुकम्मल हो जाये सबकी किसी 

में मज़हब का डर न हो 

बस ख्वाइश इतनी सी है मेरी फिर 

मेरी जगह कोई और न हो 

बस ख्वाइश इतनी सी है मेरी फिर 

मेरी जगह कोई और न हो

*****

… Thank You …

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